दूसरा अध्याय

 

वैदिकवादका सिंहावलोकन

 

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वैदिक विद्वान्

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जो मूल वेद  इस समय हमारे पास है उसमें दो सहस्र वर्षोंसे अधिक कालसे कोई विकार नहीं आया है । जहाँतक हम जानते हैं, इसका काल भारतीय बौद्धिक प्रगतिके उस महान् युगसे प्रारम्भ होता है जो यूनानके संविकासके समकालीन किंतु अपने प्रारंभिक रूपोंमें इससे पहलेका है और जिसने देशके संस्कृत-साहित्यमें लेखबद्ध पायी जानेवाली संस्कृति और सभ्यताकी नींव डाली । हम नहीं कह सकते कि इससे कितनी अधिक प्राचीन तिथि तक हमारे इस मूल वे वेदको ले जाया जा सकता है । पर कुछ ऐसे विचार हैं, जो इसके विषयमें हमारे इस मन्तव्यको प्रमाणित करते हैं कि यह अत्यन्त ही प्राचीन कालका होना चाहिये । वेदका एक शुद्धग्रंथ जिसका प्रत्येक अक्षर शुद्ध हो, प्रत्येक स्वर शुद्ध हो, वैदिक कर्मकाण्डियोंके लिये बहुत ही अधिक महत्त्वका विषय था, क्योंकि सतर्कतायुक्त शुद्धतापर ही यज्ञकी फलोत्पादकता निर्भर थी । उदाहरणस्वरूप ब्राह्मण-ग्रन्थोंमें हमें त्वष्टाकी कथा मिलती है कि वह इस उद्देश्यसे यज्ञकर रहा था कि इन्द्रसे उसके पुत्रवधका बदला लेनेवाला कोई उत्पन्न हो,  पर स्वरकी एक अशुद्धिके कारण इन्द्रका वघ करनेवाला तो पैदा नहीं हुआ, किन्तु वह पैदा हो गया जिसका कि इन्द्र वघ करनेवाला बने । प्राचीन भारतीय स्मृति-शक्तिकी असाधारण शुद्धता भी लोकविश्रुत है । और वेदके साथ जो पवित्रताकी भावना जुड़ी हुई है उसके कारण इसमें वैसे प्रक्षेप, परिवर्तन, नवीन संस्करण नहीं हो सके, जैसोंके कारण कि. कुरुवंशियोंका प्राचीन महाकाव्य वदलता-बदलता महाभारतके वर्तमान रूपमें आ गया है । इसलिये यह सर्वथा सम्भव है कि हमारे पास व्यासकी संहिता साररूपमें वैसीकी वैसी हो जैसा कि इसे उस महान् ऋषि और संग्रहीताने क्रमबद्ध किया था ।

 

मैंने कहा है 'साररूपमें', न कि इसके वर्तमान लिखित रूप में । क्योंकि वैदिक छन्द:शास्त्र कई अंशोंमें संस्कृतके छन्द:शास्त्रसे भिन्नता रखता था

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और विशेषफर पृथक्-पृथक् शब्दोंकी सन्धि करनेके नियमोंको जो की साहित्यिक भाषाका एक विशेष अंग हैं,  बड़ी स्वच्छन्दताके साथ काममें लाता था । वैदिक ऋषि,  जैसा कि एक जीवित भाषामें होना स्वाभाविक ही था, नियत नियमोंकी अपेक्षा श्रुतिका ही अधिक अनुसरण करते थे; कभी वे पृथक् शब्दोमें सन्धि कर देते थे और कभी वे उन्हें बिना सन्धि किये वैसे ही रहने देते थे । परन्तु जब वेदका लिखित रूपमें आना शुरू हुआ,  तब सन्धिके नियमका भाषाके ऊपर और भी अघिक निष्प्रतिबन्ध आघिपत्य हो गया और प्राचीन मूल वेदको वैयाकरणोंने, जहाँतक हो सका, इसके नियमोंके अनुकूल बनाकर लिखा । फिर भी, इस बातमें वे सचेत रहे कि इस संहिताके साथ उन्होंने एक दूसरा ग्रन्थ भी बना दिया,  जिसे 'पदपाठ' कहा जाता है और जिसमें सन्विके द्वारा संयुक्त सभी शब्दोंका फिरसे उनके मूल तथा पृथक्-पृथक् शब्दोंमें सन्धिच्छेद कर दिया गया है और यहाँतक कि समस्त शब्दके अंगभूत पदोंका भी निर्देश कर दिया गया है ।

 

वेदोंको स्मरण रखनेवाले प्राचीन पण्डितोंकी वेदभक्तिके विषयमें यह एक बड़ी उल्लेखयोग्य प्रशंसाकी बात है कि उस अव्यवस्थाके स्थान पर जो इस वैदिक रचनामें बड़ी आसानीसे पैदा की जा सकती थी,  यह सदा पूर्ण रूपसे आसान रहा है कि इस संहितात्मक वेदको वैदिक छन्द:शास्त्रफे अनुसार मौलिक स्वर-संगुतियोमें परिणत किया जा सके । और बहुत ही कम ऐसे उदाहरण हैं जिनमें पदपाठकी यथार्थता अथवा उसके युक्तियुक्त निर्णयपर आपत्ति उठायी जा सके ।

 

तो, हमारे पास अपने आधारके रूपमें वेदका एक ग्रन्थ है जिसे हम विश्वासके साथ स्वीकार कर सकते हैं, और चाहे इसे हम कुछ थोड़ेसे अवसरोंपर सन्दिग्ध या दोषयुक्त भी क्यों न पाते हों, यह किसी प्रकारसे भी संशोधनके उस प्रायः उच्छृंखल प्रयत्नके योग्य नहीं है जिसके लिये कुछ यूरोपियन विद्वान् अपने-आपको .प्रस्तुत करते हैं । प्रथम तो यही एक अमूल्य लाभ है जिसके लिये हम प्राचीन भारतीय पाण्डित्यकी सत्यनिष्ठाके प्रति जितने कृतज्ञ हों, उतना ही थोड़ा है ।

 

कुछ अन्य दिशाओंमें, जैसे वैदिक सूक्तोंके उनके ऋषियोंके साथ संबंघम जहां कहीं प्राचीन परंपरा पुष्ट और युक्तियुक्त नहीं है वहाँ, संभवत: यह सर्वदा सुरक्षित नहीं होगा कि पण्डितोंकी परंपराका हमेशा  निर्विवाद रूपसे अनुसरण किया जाय । परंतु ये सब ब्योरेकी बातें हैं जो बहुत ही कम महत्त्वकी हैं । न ही मेरी दृष्टिमें इसमें सन्देह करनेका कोई युक्तियुक्त कारण है  कि वेदके सूक्त अधिकतर अपनी ॠचाओंके सही क्रममें और

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अपनी यथार्थ सम्पूर्णतामें बद्ध हैं । अपवाद यदि कोई हों भी तो वे संख्या और महत्त्वकी दृष्टिसे उपेक्षणीय हैं । जब सूक्त हमें असंबद्धसे प्रतीत होते हैं, तो उसका कारण यह होता है कि ये हमारी समझमें नहीं आ रहे होते । एक बार जब मूल सूत्र हाथ लग जाय, तो हम पाते हैं कि वे पूर्ण अवयवी हैं, जो जैसे कि अपनी भाषा और अपने छन्दोंमें वैसे ही अपनी विचार-रचनामें भी आश्चर्यजनक हैं ।

 

 

किंतु जब हम वेदकी व्याख्याकी ओर आते हैं और इसमें प्राचीन भारतीय पाण्डित्यसे सहायता लेना चाहते हैं, तो हम अधिकसे अधिक संकोच करनेके लिये अपनेको बाध्य अनुभव करते हैं । क्योंकि प्रथम श्रेणीके पाण्डित्यके प्राचीनतर कालमें भी वेदोंके विषयमें कर्मकाण्डपरक दृष्टिकोण पहलेसे ही प्रधान था, शब्दोंका, पंक्तियोंका, संकेतोंका मौलिक अर्थ तथा विचार-रचना का मूल सूत्र चिरकालसे लुप्त हो चुका था या धुंधला पड़ गया था, न ही उस समय के विद्वान्में वह अन्तर्ज्ञान या वह आध्यात्मिक अनुभूति थी जो लुप्त रहस्यको अंशत: पुनरुज्जीवित कर सके | ऐसे क्षेत्रमें केवलमात्र पाण्डित्य जितनी बार पथप्रदर्शक होता है, उतनी ही बार उलझानेवाला जाल भी बन जाता है, विशेषकर तब जब कि इसके पीछे एक कुशल विद्वत्तशाली मन हो ।

 

यास्कके कोषमें; जो हमारे लिये सबसे आवश्यक सहायता है, हमें दो बहुत ही असमान मूल्यवालें अंगोंमें भेद करना चाहिये । जब यास्क एक कोषकारकी हैसियतसे वैदिक शब्दोंके विविध अर्थोंको देता है, तो उसकी प्रामाणिकता बहुत बड़ी है और जो सहायता वह देता है वह प्रथम महत्त्वकी हैं । यह प्रतीत नहीं होता कि वह सभी प्राचीन अर्थोंपर अधिकार रखता था क्योंकि उनमेंसे बहुतसे अर्थ काकक्रमसे और युगपरिवर्तनके कारण विलुप्त हो चुके थे और एक वैज्ञानिक भाषाविज्ञानकी अनुपस्थितिमें उन्हें फिरसे प्राप्त नहीं किया जा सकता था । पर फिर भी परम्पराके द्वारा बहुत कुछ सुरक्षित था । जहां कहीं यास्क इस परम्पराको कायम रखता है और एक व्याकरणज्ञकें बुद्धिकौशलको काममें नहीं लाता, वहाँ वह शब्दोंके जो अर्थ निश्चित करता है, वे चाहे, जिन मंत्रोंके लिये वह उनका निर्देश करता है उनमें सदा न भी लग सकते हों, फिर भी युक्तियुक्त भाषाविज्ञानके द्वारा इसकी पुष्टि की जा सकती है कि वे अर्थ संगत हैं । परन्तु निरुक्ति-कार यास्क कोषकार यास्ककी कोटिमें नहीं आता । वैज्ञानिक व्याकरण पहले-पहल भारतीय पाण्डित्यके द्वारा विकसित हुआ, परन्तु सुव्यस्थित भाषा-विज्ञानके प्रारंभके लिये हम आघुनिक अनुसंधानके ऋणी हैं । प्राचीन निरुक्तकारोंसे लेकर 19वीं शताब्दीतक भी भाषाविज्ञानमें केवलमात्र

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बुद्धिकौशलकी जो प्रणालियां प्रयुक्त की गयी हैं, चाहे वे योरूपमें की गयी .हों, चाहे भारतमें, उनसे अघिक मनमौजी तथा नियमरहित अन्य कुछ नहीं हो सकता । और जब यास्क इन प्रणालियोंका अनुसरण करता है तो हम सर्वथा उसका साथ छोड़नेके लिये बाध्य हो जाते हैं । न ही वह किन्हीं अमुक-अमुक मन्त्रोंकी अपनी व्याख्यामें उत्तरकालीन सायणके पाण्डित्यकी अपेक्षा अधिक विश्वासोत्पादक है ।

 

सायणका भाष्य वेदपर मौलिक तथा सजीव पाण्डित्यपूर्ण कार्यके उस युगको समाप्त करता है, जिसका प्रारंभक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थोके साथमें यास्कके, निरुक्तको कहा जा सकता है । यह कोष (यास्फका निघण्टु-निरुक्त) भारतीय मनके प्रारंभिक उत्साहके दिनोंमें संगृहीत किया गया था,  जब कि भारतीय मन मौलिकताके एक नवीन उद्भवके लिये साधनोके रूपमें प्रागैतिहासिक प्राप्तियोंको संचित करनेमें लगा हुआ था । यह भाष्य (सायणका वेदभाष्य ) अपने प्रकारका लगभग एक अंतिम महान् प्रयत्न है, जिसे पाण्डित्यपरंपरा दक्षिण भारतमें अपने अंतिम अवलंब और केंद्रके रूपमें हमारे लिये छोड़ गयी थी, इसके बाद तो पुरातन संस्कृति मुसलिम विजयके धक्केके द्वारा अपने स्थानसे च्छुत हुई और टूटकर भिन्न-भिन्न प्रादेशिक खण्डोंमें बंट गयी । और फिर तबसे समय-समयपर दृढ़ और मौलिक प्रयत्न कहीं-कहीं फुट निकलते रहे हैं, नयी रचना और नवीन संघटनके लिये बिखरे हुए यत्न भी किये गये है पर बिलकुल इस प्रकारका सर्वसाधारण, महान् तथा स्मारकभूत कार्य नहीं ही तैयार हो सका ।

 

भूतकालकी इस महान् वसीयतकी प्रभावशालिनी विशेषताएं स्पष्ट ही हैं । उस समयके विद्वान्-से-विद्वान् पण्डितोंकी सहायतासे सायणके द्वारा निर्माण किया गया यह एक ऐसा ग्रन्थ है तो पाण्डित्यके एक बहुत ही महान् प्रयासका द्योतक है शायद ऐसे किसी भी प्रयाससे अघिक जो उस कालमें किसी अकेले मस्तिष्कके द्वारा प्रयुक्त किया जा सकता था । फिर भी इसंपर, सब वैषम्य, हटाकर एक प्रकारकी समरसता ले आनेवाले मन की छाप दिखाई देती है । समूहरूपमें यह संगत है, यद्यपि विस्तारमें जानेपर इसमें कई असंगतियां दीखती है । वह एक विशाल योजनाके अनुसार पर बहुत ही सरल तरीकेसे बना हुआ है, एक ऐसी शैलीमें रचा गया है जो स्पष्ट है, संक्षिप्त है और लगभग एक ऐसी साहित्यिक छटासे युक्त है जिसे भारतीय भाष्य करनेकी परंपरागत प्रणालीमें कोई असंभव ही समझता । इसमें कहींपर भी विघावलेपका दिखाया नहीं है, मंत्रोंमें उपस्थित होनेवाली कठिनाईके साथ जो संघर्ष होता उसपर बड़े चातुर्यके साथ पर्दा डाला

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गया है और इसमें एक स्पष्ट कुशाग्रताका तथा एक विश्वासपूर्ण, पर फिर भी सरल प्रामाणिताका भाव है, जो अविश्वासीपर भी अपनी छाप डाल देता है । युरोपके सर्वप्रथम वैदिक विद्वानोंने सायणकी व्याख्याओंमें यक्तियुक्तताकि विशेष रूपसे प्रशंसा की है ।

 

तो भी वेदके बाह्य अर्थके लिये भी यह संभव नहीं है कि सायणकी प्रणालीका या उसके परिणामोंका बिना बड़े-से-बड़े संकोचके अनुसरण किया जाय । यही नहीं कि वह अपनी प्रणालीमें भाषा और रचनाकी ऐसी स्वच्छंदता स्वीकार करता है जो अनावश्यक है और कभीकभी अविश्वनीय भी होती है,  न केवल यही है कि वह बहुघा अपने परिणामोंपर पहुँचनेके लिये सामान्य वैदिक परिभाषाओंकी और नियत वैदिक सूत्रों तककी अपनी व्याख्यामें आश्चर्यजनक असंगति दिखाता है । थे तो व्योरेकी तृटियाँ हैं,  जो संभवत:.उस सामग्रीकी अवस्थामें जिससे उसने कार्य शुरू किया था, अनिवार्य थीं । परंतु सायणकी प्रणालीकी केंद्रीय तृटि यह है कि वह सदा कर्मकाण्ड-दिघिमें ही ग्रस्त रहता है और निरंतर वेदके आशयको बलपूर्वक कर्मकाण्डके संकुचित सांचेमें डालकर वैसा ही रूप देनेका यत्न करता है । इसलिये वह उन बहुतसे मूल सूत्रोंको खो  देता है जो इस पुरातन घर्मपुस्तकके बाह्य अर्थके लिये-जो बिलकुल वैसा ही रोचक प्रश्न है जैसा कि इसका आंतरिक अर्थ-बहुत बड़े निर्देश दे सकते है और .बहुत ही महत्त्वके हैं । परिणामत: सायणभाष्य द्वारा ऋषियोंका,  उनके विचारोंका,  उनकी सांस्कृतिका, उनकी अभीप्साओंका एक ऐसा प्रतिनिघित्व हुआ है जो इतना संकुचित और दारिद्रयोपहत है कि यदि उसे स्वीकार कर किया जाय, तो वह वेदके संबधंमें प्राचीन पूजाभावको,  इसकी पवित्र प्रमाणिकताको,  इसकी दिव्य ख्यातिको बिलकुल अबुद्धिगम्य कर देता है, या उसे इस रूपमें रखता है कि इसकी व्याख्या केवलमात्र यही हो सकती है कि यह उस श्रद्धाकी एक अंधी और बिना ननुनच किये मानी गयी परंपरा है जिस श्रद्धाका प्रारंभ एक मौलिक भूलसे हुआ है ।

 

इस भाष्यमें अवश्य ही अन्य पहलू और तत्त्व भी हैं, परंतु वे मुख्य विचारके सामने गौण हैं या उसके ही अनुवर्ती हैं । सायण और उसके सहायकों को बहुधा परस्पर टकरानेवाले विचारों और परंपराओंके विशाल समुदायपर जो भूतकालसे आकर तब तक बचा रहा गया था, कार्य करना पड़ा था । इनके तत्त्वोंमेंसे कुछको उन्होंने नियमित स्वीकृति देकर कायम रूखा, दूसरोके लिये उन्होंने छोटी-छोटी छुटें देनेके लिये अपनेको वाध्य अनुभव किया | यह हो सकता है कि पुरानी अनिश्चितता या गड़बड़ तकमेंसे एक ऐसी

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व्याख्यां निकाल लेनेमें .जिसकी स्थिर आकृति हो और जिसमें एकात्मता हो, सायणका के बुद्धि-कौशल है,  उसिके कारण उसके कार्यकी यह महान् औंर .चिरकाल तक अशंकित प्रामाणिकता बनी हो |

 

प्रथम तत्त्व जिससे सायणको वास्ता पड़ा और जो हमारे लिये बहुत अधिक रोचक है, श्रुतिकी प्राचीन आध्यात्मिक, दार्शनिक अथवा मनोवैज्ञानिक व्याख्याओंका अवशेष था,  जो इसकी पवित्रताका असली आधार है । उस अंश तक जहाँ तक कि ये प्रचलित अथवा कट्टरपंथी1 (Orthodox) विचारमें प्रविष्ट हो चुकी थीं, सायण उन्हें स्वीकार करता है. परंतु वे उसके भाष्यमें एक अपवादात्मक तत्त्व ही हैं, जो .मात्रा तथा महत्त्व की दृष्टिसे तुच्छ है । कहीं-कहीं प्रसंगवश वह अपेक्षया कम प्रचलित आध्यात्मिक अर्थोंका चलते-चलते जिक्र कर जाता है या उन्हें स्वीकृति दे देता है । उदाहरणतः, उसने 'वृत्र' की उस प्राचीन व्याख्याका उल्लेख किया है,  पर उसे स्वीकार करनेके लिये नहीं,  जिसमें कि 'वृत्र' वह आच्छादक (आवरक ) है, जो मनुष्यकी कामना और अभीप्सामोंके विषयोंको उसके पास पहुँचनेसे रोके रखतीं है । सायणके लिये 'वृत्र' या तो केवलमात्र शत्रु है या भौतिक मेघरूपी असुर है, जो जलोंको रोक रखता है और जिसका वर्षा करनेवाले (इन्द्र ) को भेदन करना पड़ता है ।

 

दूसरौ तत्त्व है गाथात्मक या इसे पौराणिक भी कहा जा सकता है- देयताओंकी गाथाएँ और कहानियाँ जो उनके बाह्य रूपमें दी गयी हैं, बिना उस गंभीरतर आशय और प्रतीकात्मक तथ्यके जो समस्त पुराणकेऔचित्यको सिद्ध करनेवाला एक सत्य है ।

 

तीसरा तत्त्व आख्यानात्मक या ऐतिहासिक है; प्राचीन राआओं और ऋषियोंकी कहानियाँ जो वेदके अस्पष्ट वर्णनोंका स्पष्टीकरण करनेके लिये ब्राह्यणग्रन्थोंमें दी गयी हैं या उत्तरकालीन परंपराके द्वारा आयी हैं । .इस तत्त्वके साथ सायणका बर्ताव कुंछ हिचकिचाहट से एं युक्त है । बहुधा यह उन्हें मंत्रोंकी उचित व्याख्याके ख्यमें ले लेता है; कभी-कभी वह विकल्पके

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1. इस शब्दका मैं शिथिलताके साथ प्रयोग कर खा हूँ। कट्टरपंथी (()rthodox) और धर्मविरोधी (Heterodox) मे पारिभाषिक शब्द यूरोपियन या सांप्रदायिक अर्थ भारतके लिये, जहाँ सम्मति हमेशा स्वतंत्र रही है, सच्चे_अर्थोंमें 'प्रयुक्त नहीं होते ।

2. यह मान लेना युक्तियुक्त है की पुराण ( आख्यान तथा उपाखयान) और इतिहास ( ऐतिहासिक परंपरा ) वैदिक संस्कृतिके ही अंग थे, उससे पूर्वकालसे जब की पुराणोंके और ऐतिहासिक महकाव्योंके वर्त्तमान स्वरूपोंका विकास हुआ |

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तैर पर एक दूसरा अर्थ भी देता है जिसके साथ कि स्पष्ट तौरसे वह अपनी अधिक बौद्धिक सहानुभूति रखता है, परंतु उन दोनोंमेसे किसे प्रमाणिक माने इस विषयमें वह दोलायमान ही रहता है ।

 

इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है प्रकृतिवादी व्याख्या का तत्त्व । न केवल वहां स्पष्ट या परंपरागत तद्रूपताएं हैं, इन्द्र है, मरुत् हैं, त्रित अग्नि  है,  सूर्य है, उषा है, परंतु हम देखते हैं कि मित्रको दिनके साथ तद्रूप मान लिया गया है, वरुणको रात्रिके साथ, अर्यमा तथा भगको सूर्यके साथ और ऋभूओंको इसकी रश्मियोंके साथ । हम यहां वेदके संबंघमें उस प्रकृतिवादी सिद्धांतके बीज पाते हैं जिसे यूरोपियन पाण्डित्यने बहुत ही बड़ा विस्तार दे दिया है । प्राचीन भारतीय विद्वान् अपनी कल्पनाओंमें वैसी स्वतंत्रता और वैसी क्रमबद्धं सूक्ष्मताका प्रयोग नहीं करते थे । तो भी सायणके भाष्यमें पाया जानेवाला यह तत्त्व ही योरोपके तुलनात्मक गाथाविज्ञानका असली जनक है ।

 

परंतु जो तत्त्व व्यापक रूपसे सारे भाष्यमें छाया हुआ है वह है कर्मकाण्डका विचार; यही स्थिर स्वर है जिसमें अन्य सब अपने-आपको खो देते हैं । वेदोंकि सूक्त भले :ही ज्ञानके लिये सर्वोच्च प्रमाण-रूपसे उपस्थित हों,  तो भी दार्शनिक मतोंके अनुसार वे प्रधान रूपसे और सैद्धांतिक रूप से कर्मकाण्डके साथ, कर्मोंके साथ, संबद्ध हैं और 'कर्मोंसे'  समझा जाता था मुख्य. रूपसे वैदिक यज्ञोंका कर्मकाण्डमय  अनुष्ठान । सायण सर्वत्र इसी विचारके प्रकाशमें प्रयत्न करता है । इसी साँचेके अन्दर वह. वेदकी. भाषाको ठोक-पिटर ढालता है, इसके विशिष्ट शब्दोंके .समुदायको  भोजन, पुरोहित,  दक्षिणा देनेवाला धन-दौलत, स्तुति प्रार्थना; यज्ञ बलिदान-इन कर्मकाण्ड-परक अर्थोंका रूप देता है ।

 

धन-दौलत ( वनम् ) और भोजन ( अन्नम्) इनमें मुख्य हैं । क्योंकि अधिकसे अधिक स्वार्थसाधक तथा भौतिकतम पदार्थ ही यज्ञके ध्येयके तौंरपर चाहे गये हैं, जैसे स्वामित्व, बल, शक्ति,  बाल-बच्चे, सेवक,  सोना घोड़े गौएँ, विजय,  शत्रुओंका वध तथा लूट, प्रतिस्पर्धी तथा विद्धेसी आलोचकका विनाश । जब कोई व्यक्ति पढ़ता है और मन्त्रके बाद मन्त्रको लगातार इसी एक अर्थमें व्याख्या किया हुआ पाता है, तो उसे गीताकी मनोवृत्तिमें उपरसे दिखाई देनेवाली यह असंगति और भी अच्छी तरह समझमें आने लगती है कि गीत एक तरफ तो वेदकी एक दिव्य ज्ञान (गीता 15--15 ) के रूपमें प्रतिष्ठा करती है, फिर भी दूसरी तरफ केवलमात्र उस वेदवादके रक्षकोंका दृढ़ताके साथ तिरस्कार करती है  (गीता 2-42) जिसकी सब

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पुष्पित क्षिक्षायें केवल भौतिक धन-दौलत, शक्ति और. भोगका प्रतिपादन करती हैं ।

 

वेदके सब संभव अर्थोंमेसे इस निम्नतर अर्थके साथ ही वेदको अन्तिम तौरपर और प्रामाणिकतया बांध देना-यह सायणके भाष्यका सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम हुआ । कर्मकाण्डपरक व्याख्याकी प्रघानताने पहले ही भारतवर्षको अपने सर्वश्रेष्ठ धर्मशास्त्र ( वेद) के सजीव उपयोगसे और उपनिषदोंके समस्त आशयको बतानेवाले सच्चे मूलसूत्रसे वंचित कर रखा था । सायणके भाष्यने पुरानी मिथ्या धारणाओंपर प्रामाणिकताकी मुहर लगा दी, जो कई शताब्दियों तक नहीं तोड़ी जा सकी । और इसके दिये हुए निर्देश, उस समय जब कि एक दूसरी सभ्यताने वेदको ढूँढ़कर निकाला और इसका अध्ययन प्रारम्भ किया,  यूरोपियन विद्धानोंके मनमें नयी-नयी गलतियोंके कारण बने ।

 

तथापि यदि सायणफा ग्रन्ध एक ऐसी चाबी है जिसने वेदके आन्तरिक आशयपर दोहरा ताला लगा दिया है, तो भी वह वैदिक शिक्षाकी प्रारम्भिक कोठरियोंको खोलनेके लिये अत्यन्त अनिवार्य है । यूरोपियन पाण्डित्यका सारा-का-सारा विशाल प्रयास भी इसकी उपयोगिताका स्थान लेने योग्य नहीं हो सका है । प्रत्येक पगपर हम इसके साथ मतभेद रुकनेके लिये बाध्य हैं पर प्रत्येक पगपर इसका प्रयोग करनेके लिये भी बाध्य हैं । यह एक आवश्यक. कूदने-का-तख्ता है,  या फिर यह एक सीढ़ी है जिसका हमें प्रवेशके लिये उपयोग करना पड़ता है,  यद्यपि इसे हमें आवश्यकही पीछे छोड़ देना चाहिये, यदि हम आगे बढकर आन्तरिक अर्थकी गहराईमें गोता लगाना चाहते हैं,  मन्दिरके भीतरी भागमें पहुँचना चाहते हैं  ।

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